नागौर जिले का गाँव 196 साल से इस गांव में नहीं पड़ा सूखा:अनूठी कोशिश; एक परंपरा जिसने कभी नहीं आने दिया वाटर क्राइसिस

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श्री डूंगरगढ़ न्यूज़ नागौर जिले में एक गांव में 196 साल से कभी सूखा नहीं पड़ा है। यह दैवीय वरदान नहीं बल्कि गांव की एक परंपरा है जिसके तहत बारिश से पहले ज्येष्ठ अमावस्या पर पूरा गांव यहां के प्राचीन तालाब पर श्रमदान करता है। सोमवार को ज्येष्ठ अमावस्या पर गांव के लोगों ने लोकगीत गाते हुए तालाब पर फावड़े चलाए और कैचमेंट एरिया की सफाई की। जल संरक्षण का सबक इस गांव के बच्चे-बच्चे जन्मघुट्‌टी के साथ पिलाया गया है। इसीलिए बड़े बुजुर्ग और महिलाओं के साथ बच्चे भी श्रमदान करते नजर आए।

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गांववालों की सूझबूझ के कारण यहां कभी जल संकट नहीं होता। हर साल ज्येष्ठ महीने (मई-जून) की अमावस्या के दिन पूरा गांव प्राचीन तालाब पर जुटता है। सोमवार को यहां उत्सव सा माहौल रहा। पिछले साल कोविड महामारी के दौरान भी ग्रामीणों ने गाइडलाइन का पालन करते हुए श्रमदान की परंपरा निभाई थी। ये गांव है नागौर जिले का झुंझारपुरा। यहां 196 साल पहले हिमोलाई तालाब का निर्माण हुआ था। आज सुबह से ही गांव के हर रास्ते पर तालाब पहुंचने वालों की भीड़ थी। जेठ की तपती दोपहरी में भी बच्चे बूढ़े महिलाएं तालाब की सफाई करते रहे।

नई पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षण के लिए ऐसे तैयार करता है ये गांव। मां के साथ 5 साल का बच्चा भी श्रमदान कर रहा है।
नई पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षण के लिए ऐसे तैयार करता है ये गांव। मां के साथ 5 साल का बच्चा भी श्रमदान कर रहा है।
नई पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षण के लिए ऐसे तैयार करता है ये गांव। मां के साथ 5 साल का बच्चा भी श्रमदान कर रहा है।

समूह में गीत गाते हुए श्रमदान करने पहुंचे
गांव में कल सुबह से ही उत्सव का माहौल रहा। महिलाएं लोकगीतों गाते हुए तालाब पर पहुंचीं तो पुरुष और बच्चे भी पहुंचे। सभी अलग-अलग समूह में तालाब पहुंचे, खुदाई व श्रमदान किया। झुंझारपुरा गांव के लोग पर्यावरण व जल संरक्षण की मुहिम के लिए जाने जाते हैं। आस-पास के गांवों के लोग भी श्रमदान में सहयोग के लिए पहुंचे। हर घर से एक व्यक्ति श्रमदान में शामिल होता है।

इनमें से कोई भी मजदूर नहीं है। किसान हैं, दुकानदार हैं, स्टूडेंट हैं, नौकरीपेशा हैं। गांव के लिए सभी एकजुट होकर तालाब में श्रमदान करते हैं।
इनमें से कोई भी मजदूर नहीं है। किसान हैं, दुकानदार हैं, स्टूडेंट हैं, नौकरीपेशा हैं। गांव के लिए सभी एकजुट होकर तालाब में श्रमदान करते हैं।
इनमें से कोई भी मजदूर नहीं है। किसान हैं, दुकानदार हैं, स्टूडेंट हैं, नौकरीपेशा हैं। गांव के लिए सभी एकजुट होकर तालाब में श्रमदान करते हैं।

पर्यावरण संरक्षण का मॉडल बना
झुंझारपुरा सेवा समिति के पदाधिकारियों ने बताया कि 196 साल पहले समाज के हेमाराम आंचरा ने ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन तालाब खुदवाकर श्रमदान की परंपरा शुरू की थी। तब से अब तक हर वर्ष तालाब का स्थापना दिवस मनाया जाता है, श्रमदान किया जाता है। तालाब के किनारे लोकदेवता झुंझार बाबा का मंदिर है। मान्यता है कि झुंझार बाबा की कृपा से इस तालाब में कभी पानी पूरा खत्म नहीं होता। ग्रामीण बताते हैं कि उन्होंने कभी तालाब को सूखा नहीं देखा। गांव के प्रकृति प्रेमियों के प्रयासों से तालाब जल व पर्यावरण संरक्षण का मॉडल बन चुका है।

बारिश के बाद तालाब लबालब हो जाता है। इसलिए बारिश से पहले पूरा गांव इस तालाब को साफ करता है। इससे भू-जल रिचार्ज होता है।
बारिश के बाद तालाब लबालब हो जाता है। इसलिए बारिश से पहले पूरा गांव इस तालाब को साफ करता है। इससे भू-जल रिचार्ज होता है।
बारिश के बाद तालाब लबालब हो जाता है। इसलिए बारिश से पहले पूरा गांव इस तालाब को साफ करता है। इससे भू-जल रिचार्ज होता है।

वैज्ञानिक कारण भी : पानी के संग्रहण के साथ-साथ होता है भूगर्भ रिचार्ज
भूगर्भ विशेषज्ञों का भी मानना है कि श्रमदान के जरिए तालाब की खुदाई करने से दो फायदे होते हैं। एक तो इससे बरसात के पानी को स्टोरेज कर साफ-सुथरा रखते हुए साल भर पीने के काम लिया जाता है। दूसरा व सबसे अहम फायदा ये है कि इसके चलते भूगर्भ का अंडरग्राउंड वाटर लेवल भी रिचार्ज होकर बढ़ता रहता है। भूजल स्तर अच्छा हो तो कभी भी जल संकट जैसी समस्या नहीं आती है।

झुंझारपुरा गांव के लोग पर्यावरण प्रेमी हैं। जल संरक्षण ही नहीं बल्कि पौधारोपण कर पर्यावरण की भी रक्षा करते हैं। तालाब की पाल पर यह 500 साल पुराना पेड़ इसकी गवाही देता है। पेड़ गिरने के बाद भी हरा-भरा है।
झुंझारपुरा गांव के लोग पर्यावरण प्रेमी हैं। जल संरक्षण ही नहीं बल्कि पौधारोपण कर पर्यावरण की भी रक्षा करते हैं। तालाब की पाल पर यह 500 साल पुराना पेड़ इसकी गवाही देता है। पेड़ गिरने के बाद भी हरा-भरा है।
झुंझारपुरा गांव के लोग पर्यावरण प्रेमी हैं। जल संरक्षण ही नहीं बल्कि पौधारोपण कर पर्यावरण की भी रक्षा करते हैं। तालाब की पाल पर यह 500 साल पुराना पेड़ इसकी गवाही देता है। पेड़ गिरने के बाद भी हरा-भरा है।

संदेश : दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो बचा सकते हैं पानी
ग्रामीणों के अनुसार करीब 196 साल पहले शुरू हुई परंपरा को निभाया जा रहा है। पीढ़ियां बदल गई लेकिन परंपरा जारी है। इसी वजह से आज यह तालाब मॉडल के रूप में विकसित है। नई पीढ़ी भी अपने गांव की इस परंपरा को कायम रख रही है। अपने स्तर पर प्रयास कर हम वर्षा जल का संग्रहण करते हैं। पानी बचाते हैं। सामूहिक प्रयास करने से नहीं चूकते।

इस तस्वीर में बच्चे भी हैं, युवा भी हैं और बुजुर्ग भी। पीछे झुंझार बाबा का मंदिर दिखाई दे रहा है। पर्यावरण व जल संरक्षण की दिशा में इस गांव से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
इस तस्वीर में बच्चे भी हैं, युवा भी हैं और बुजुर्ग भी। पीछे झुंझार बाबा का मंदिर दिखाई दे रहा है। पर्यावरण व जल संरक्षण की दिशा में इस गांव से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
इस तस्वीर में बच्चे भी हैं, युवा भी हैं और बुजुर्ग भी। पीछे झुंझार बाबा का मंदिर दिखाई दे रहा है। पर्यावरण व जल संरक्षण की दिशा में इस गांव से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

सख्ती : कोई गांव से पेड़ नहीं काट सकता
झुंझारपुरा के युवा कैलाश आंचरा ने बताया कि हिमोलाई तालाब का क्षेत्रफल 93 बीघा में हैं। इस क्षेत्र से कोई हरा पेड़ एवं सूखे पेड़ों की टहनियां तक नहीं ले जा सकता। यहां का हर व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण के लिए स्थापना दिवस पर पौधारोपण कर उनके संरक्षण का संकल्प लेता है।