जानिए क्यों मनाया जाता है, घुड़ला पर्व ? घुड़ला का इतिहास

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घुड़ला नृत्य मारवाड़ क्षेत्र में किया जाता है। यह सुहागिन स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य है। कई स्थानों पर कुंवारी कन्याएं भी इसमें भाग लेती हैं। यह नृत्य गणगौर पर्व के आसपास किया जाता है। इस अवसर पर माता गौरी अर्थात् पार्वतीजी एवं उनके ईश्वर शिवजी की पूजा होती है। विधवा स्त्रियां भी गौर को पूजती हैं।

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घुड़ला नृत्य में सुहागिन स्त्रियां एवं कुंवारी लड़कियां छिद्र युक्त घड़े को सिर पर रखकर उसमें दिये जलाती हैं तथा नृत्य के दौरान घूमर और पणिहारी के अंदाज में गोल चक्कर बनाती हैं। इस नृत्य से मारवाड़ रियासत अर्थात जोधपुर राज्य की एक ऐतिहासिक घटना जुड़ी हुई है।

जानिए क्यों मनाया जाता है, घुड़ला पर्व ? घुड़ला का इतिहास

घुड़ला क्यों मनाया जाता है? जानिये इतिहास

ई.1490 में मारवाड़ पर राव जोधा के पुत्र सातलदेव का राज्य था। उन दिनों मारवाड़ के राठौड़ राजकुमार मुस्लिम जागीरों को उजाड़कर अपने राज्य में मिला रहे थे। जोधा के पुत्र दूदा ने मेड़ता, बीदा ने लाडनूं तथा बीका ने बीकानेर राज्य की स्थापना की थी।

 

इस कारण आसपास के मुस्लिम सूबेदार एवं जागीरदार मारवाड़ पर आक्रमण करते रहते थे। अजमेर का सूबेदार मल्लूखां भी मारवाड़ रियासत पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा था। एक बार उसने अपने सहायक सिरिया खां तथा घुड़ले खां के साथ मारवाड़ के मेड़ता गांव पर आक्रमण किया। मार्ग में उसने पीपाड़ गाँव के तालाब पर सुहागिन स्त्रियों को गणगौर की पूजा करते हुए देखा। मल्लूखाँ ने उन सुहागिनों को पकड़ लिया तथा उन्हें लेकर अजमेर के लिए रवाना हो गया।

 

राजा ने कराया स्त्रीयों को मुक्त

जब यह समाचार राव सातल के पास पहुँचा तो राव सातल ने अपनी सेना लेकर मल्लू खाँ का पीछा किया। मेड़ता से दूदा तथा लाडनूं से बीदा की सेनाएं भी मल्लूखां को रोकने के लिए चल पड़ीं। मल्लूखां पीपाड़ से कोसाणा तक ही पहुँचा था कि जोधपुर नरेश सातल ने उसे जा घेरा। मल्लूखां और उसके साथी भाग छूटे किंतु मल्लूखां का सेनापति घुड़ले खां इस युद्ध में मारा गया। हिन्दू कन्याएं एवं सुहागिन स्त्रियां मुक्त करवा ली गयीं।

 

सारंगवास गांव कहलाया घड़ाय गांव

सातल के सेनापति खीची सारंगजी ने घुड़ला खां का सिर काटकर राव सातल को प्रस्तुत किया। राव सातल ने घुड़लाखां का कटा हुआ सिर उन स्त्रियों को दे दिया जिन्हें मल्लू खां उठाकर ले जाना चाहता था। स्त्रियां उस कटे हुए सिर को लेकर गांव में घूमीं और उन्होंने राजा के प्रति आभार व्यक्त किया। महाराजा के आदेश से उस सिर को सारंगवास गांव में गाड़ा गया। जिसके कारण वह गांव आज भी घड़ाय कहलाता है।

घायल राव सातल और उसके कुछ साथी सरदारों का उसी रात अपने डेरे में प्राणांत हो गया। इस घटना की स्मृति में आज भी चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को घुड़ला निकाला जाता है। इस अवसर पर गाँव-गाँव में मेला लगता है।

 

इस तरह मनाया जाता है ये पर्व

इस दिन औरतें कुम्हार के यहाँ से कोरा घड़ा लाकर उस पर सूत बांधती हैं तथा घड़े में बहुत से छेद करके उसमें मिट्टी का दीपक जलाती हैं। मटकी के छेद, घुड़ले के सिर में लगे तीर-बरछी के घाव समझे जाते हैं और उसमें रखा दीपक जीवात्मा का प्रतीक माना जाता है। सुहागिन स्त्रियां एवं लड़कियां इस घड़े को लेकर गली-गली घूमती हैं तथा नृत्य करती हैं। घुड़ला घुमाने वाली महिलाओं को तीजणियां कहा जाता है। इस दौरान वे घुड़ले को चेतावनी देती हुई गाती हैं-

घुड़ले रे बांध्यो सूत, घुड़लो घूमैला जी घूमैला।

सवागण बारै आग, घुड़लो घूमैला जी घूमैला। 

इस आयोजन के माध्यम से मारवाड़ की सुहागिन स्त्रियां घुड़ले खां को चेतावनी देती हैं कि सुहागिनें माता पार्वती की पूजा करने जा रही हैं, घुड़ले खां में दम हो तो रोक ले।

चैत्र सुदी तीज तक यह घुड़ला घुमाया जाता है तथा उसके बाद विसर्जित कर दिया जाता है। जोधपुर राज परिवार एवं सामंती परिवारों की स्त्रियाँ कुम्हार के यहाँ घुड़ला लेने लवाजमे के साथ जाती थीं। दासी घुड़ले को अपने सिर पर रख कर गणगौर की सवारी के साथ अष्टमी से तीज तक घुमाती थी। तीज के दिन महाराजा तलवार या खांडे से इस घड़े को खंडित करते थे। यह आयोजन गांव-गांव होता था तथा जनता घड़े के टुकड़ों को शकुन के तौर पर अपने अन्न के कोठार में रखती थी।

घुड़ले के मेले के दूसरे दिन मारवाड़ में लोटियों का मेला होता था। संध्या के समय कन्याएँ एवं सुहागन स्त्रियां टोली बनाकर, सिर पर छोटे-बड़े तीन चार कलश रखकर, गीत गाती हुई जलाशय, कुएँ या बावड़ी पर जाती थीं। जलाशय से जल भर कर उसमें दूब, पुष्प आदि रखकर गाजे-बाजे के साथ लौटती थीं। उस जल से गणगौर की पूजा की जाती थी। जोधपुर में गणगौर को पानी पिलाने के लिये लोटियाँ चांदी, तांबे तथा पीतल कीे होती थीं। कलश पर नारियल रखा जाता था एवं पुष्प मालाएँ बांधी जाती थीं। लोटियों वाली स्त्रियां गले में फूलों की माला पहन कर गीत गाती हुई पूजा स्थान को आतीं और गणगौर को पानी पिलाती थीं। यह परम्परा आज भी अनवरत रूप से चल रही है।